डर

एक अनन्त गहरा सागर 
जिसमें डूब रही हूँ मैं 
ना तैरने की शक्ति है
और ना ही मन
बस बुत जैसी हो गयी हूँ मानो 
इस अंधेरे सन्नाटे में
पर सच तो यही है,
की डरी हुई  हूँ मैं
सहम गयी हूँ इस जीवन से
मैं बनीं  हूँ या नहीं इस के लिए पता नहीं
पर अब थक चुकी हूँ मैं
आज तो आँसू ने भी साथ/सहारा छोड़ दिया 
जैसे बोल रहें  हैं 
की हट मेरे क़ाबिल नहीं है तू। 

लो जी, एक और पंक्ति आपके नाम hoom। 

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